Wednesday, June 9, 2010

विरोध की गरिमा


विरोध की भी नैतिकता होती है। खासकर तब जब वह लिखे शब्द में दर्ज होता है। शब्द विरोध को संयमित-संस्कारित, विरोध प्रकट करने वाले को अनुशासित-मर्यादित करता है। अपनी मर्यादा भूल विरोध उच्छृंखल, अश्लील हो वह अधिकार खो देता है कि किसी के आचरण पर टिप्पणी कर सके।

दिल्ली हिंदी अकादमी सम्मान पर मई में जनसत्ता में मेरा एक आलेख प्रकाशित हुआ था जिसमें मैंने उन लेखकों पर सवाल उठाया था जो ग्यारह मई की शाम दिल्ली सचिवालय के सभाग्रह में चोरी-छुपे हुये सम्मान समारोह में पहुँच गये थे। मैं प्रिंट का शायद अकेला पत्रकार था जो वहॉं पहुँच सका था व सब कुछ होते देख रहा था।

हाल ही मुझे मालूम हुआ कि मेरे उस आलेख में गगन गिल पर लिखे कुछ शब्दों को पूरी तरह मिसक्वोट कर कई महानुभावों ने उन पर निहायत ही बेहूदे और अश्लील प्रहार किये हैं। मेरा समूचा विरोध उस मानसिकता से था जब हम अपनी भाषा की अस्मिता दॉव पर लगा उस सत्ता का हिस्सा बन जाते हैं जो लेखक को महज एक हथियार समझती है उसके जरिये अपने हित साधती है और लेखक चुप अपनी हस्ती को लुटते देखते हैं।
दुर्भाग्य कि इन महानुभावों ने भाषा के इस पहलू को एकदम नजरअंदाज किया और इसे हिंदी बनाम गगन की लड़ाई बना दिया। इस प्रक्रिया में उन्होंने न सिर्फ अपने विरोध को अवमूल्यित बल्कि खुद भाषा को भी स्खलित किया।

मुझे स्वीकारने में कोई हिचक नहीं कि मुझे मालूम होता कि गगन के प्रति मेरे उस शब्द को, जो घटनास्थल पर होने की वजह से मेरे आलेख में सहज ही चला आया था उसकी बारीक डिटेल्स देने के उद्देश्य से, इस कदर अवमूल्यित किया जायेगा तो मैं उसे नहीं प्रयुक्त करता। कि मेरे उस लिखे का दुर्नियोजन हो सका व लिखने से पूर्व उसमें अंतर्निहित दुरुपयोग की संभावनायें न चीन्ह सकने के लिये मेरी अदूरदर्शिता ही जिम्मेदार है ऐसा भी स्वीकारता हॅंू।

क्या हम इतने विपन्न समाज हैं कि हमे मसले नहीं मसाले अधिक प्रलोभित करते हैं? हम दूसरों के शब्दों को हड़प उन्हें मनचाहा अर्थ देने की जुगत में रहते हैं? अपने साथी रचनाकार पर ‘बिलो द बैल्ट‘ प्रहार कर एक क्रूर सैडिस्टिक सुकून हासिल करते हैं?

गगन व उन सभी लेखकों के प्रति मेरा विरोध अभी भी है जिन्होंने उस शाम सचिवालय में उपस्थिति दर्ज कराना स्वीकार किया लेकिन एक कवियित्री पर इतने बेहूदे व व्यक्तिगत प्रहार कर हम वह अधिकार खो चुके हैं कि दिल्ली अकादमी के मुद्दे पर अपना विरोध दर्ज करायें या किसी लेखक पर कोई टिप्पणी करें। हमारे इस आचरण ने सत्ता के समक्ष हमारी स्थिति और अधिक हास्यास्पद बना दी है--- सार्वजनिक रूप से एक दूसरे पर कीचड़ उछालता एक समुदाय।

यह आत्मचिंतन के लम्हे हैं, दोषारोपण के नहीं; मौन होकर ही हम इस विवाद से तिरस्कृत-निर्वासित हुयी अपनी भाषा को उसकी मातृभूमि में प्राणप्रतिष्ठित कर पायेंगे।

2 comments:

  1. क्या हम इतने विपन्न समाज हैं कि हमे मसले नहीं मसाले अधिक प्रलोभित करते हैं?...yah sawal hi sabkuch zahir kar deta hai...

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  2. “Aapka kahna sahi hai ki ek kavyitri par behude aur vyaktigat prahar ho rahe hain. waise mera bhi manna hai ki sudhish pachauri jaise lalchi aalochkon ke puraskar lene ka virodh bhi usi tark se hona chahiye tha. jo hamesha satta ke virodh me mukhar rahte the. sawaal unse bhi poochhe jane chahiye the. lekin nahi. kyon? iska uttar shayad aap bhi jante hain aur ham bhi.” kya sachmuch hindi sahitya jagat masala premi hota jaa raha hai?

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